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जिस मोरबी पुल हादसे में मारे गए 135 लोग, क्यों नहीं बन पा रहा वह गुजरात में चुनावी मुद्दा?

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गुजरात के मोरबी में पुल गिरने से 135 लोगों की मौत हो गई। लेकिन चुनावी दौर में इतनी बड़ी घटना होने के बाद भी पूरे गुजरात में मोरबी पुल के ढहने और इतनी मौतों के बाद भी यह मुद्दा चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा है। शुरुआत में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने जोर-शोर से इसको मुद्दा तो बनाया, लेकिन धीरे-धीरे गुजरात के चुनावों में यह मुद्दा एक तरह से किनारे पहुंच चुका है। गुजरात के राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है दरअसल यह मुद्दा इसलिए बड़ा नहीं बन पा रहा है क्योंकि जातिगत समीकरणों के आधार पर अगर इसे चुनावी मुद्दा बनाया जाएगा, तो यहां का पाटीदार वोट बैंक उस राजनीतिक पार्टी से खिसक जाएगा। क्योंकि इस पुल की देखरेख करने वाली ओरेवा कंपनी के मालिक उस मजबूत पाटीदार समुदाय से आते हैं, जिसमें उनका और उनके पूरे परिवार का जातिगत दखल न सिर्फ सौराष्ट्र क्षेत्र बल्कि पूरे गुजरात में जबरदस्त तरीके से है। गुजरात की राजनीति को करीब से समझने वाले राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि कानूनी नजरिए से मोरबी में हुई घटना पर जो कार्रवाई होनी है, वह हो रही है। लेकिन जिस तरीके से मोरबी में ओरेवा कंपनी को लेकर राजनैतिक माहौल बनाया गया, वह धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। उसकी वजह बताते हुए राजनीतिक जानकारों का कहना है कि दरअसल जिस तरीके से कंपनी के प्रबंधन पर कार्रवाई की मांग की जा रही थी, वह गुजरात के पाटीदार समुदायों में नाराजगी का मुद्दा बनता जा रहा था। गुजरात के वरिष्ठ पत्रकार हनुमंत दवे कहते हैं कि ओरेवा कंपनी मोरबी की है। इस कंपनी के संस्थापक ओधव जी राघव जी पटेल थे। दवे कहते हैं कि सिर्फ सौराष्ट्र ही नहीं बल्कि गुजरात के कई इलाकों में इस कंपनी के संस्थापकों की पाटीदार समुदाय में मजबूत पकड़ मानी जाती रही है। पाटीदार समुदाय की तमाम सामाजिक संगठनों में कंपनी और उससे जुड़े लोगों की मजबूत भागीदारी भी रहती है। यही वजह है कि कंपनी के प्रबंधन तंत्र का राजनैतिक और सामाजिक वर्चस्व बीते कई दशकों से गुजरात के कई इलाकों में बना हुआ है। सियासी जानकारों का कहना है कि जिस ओरेवा कंपनी को मोरबी के पुल की देखरेख की जिम्मेदारी दी गई थी, दरअसल उस कंपनी का पाटीदार समुदाय में अच्छा खासा दखल भी है। यही वजह रही कि इसके राजनैतिक नफा नुकसान का आकलन भी राजनीतिक दलों ने करना शुरू कर दिया। सियासी गलियारों में चर्चा इसी बात की हो रही है कि शुरुआत में तो कंपनी के प्रबंधन पर कार्रवाई की मांग को लेकर आम आदमी पार्टी से लेकर कांग्रेस पार्टी और तमाम अन्य राजनीतिक दलों ने माहौल बनाना शुरू किया। लेकिन जब इस बात का अहसास हुआ कि यह माहौल पाटीदार समुदाय में उनके खिलाफ जा सकता है, तो धीरे-धीरे 135 लोगों की मौत का मुद्दा पूरे गुजरात में दूसरे अन्य मुद्दों से पीछे होता चला गया।  गुजरात के सियासी जानकारों का कहना है कि पाटीदार समुदाय का असर सिर्फ सौराष्ट्र इलाके में ही नहीं, बल्कि पूरे गुजरात में है। हालांकि जातिगत समीकरणों के आधार पर इनकी संख्या महज 12 से 14 फ़ीसदी ही है, लेकिन पाटीदार समुदाय की गुजराती में ही नहीं बल्कि अपने देश से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूत पकड़ मानी जाती है। गुजरात के सियासी जानकारों का कहना है कि बात जब वोट बैंक की आती है, तो बड़े-बड़े मुद्दे पीछे हो जाते हैं। मोरबी में हुई बड़ी घटना भी इसी नजरिए से देखी जा रही है। राजकोट के वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र कोटडिया कहते हैं कि अगर इस पूरे घटनाक्रम को राजनीतिक नजरिए से देखें, तो निश्चित तौर पर सभी राजनीतिक पार्टी के लिए इस घटना का राजनीतिकरण करना चुनाव के लिहाज से नुकसानदायक लग रहा था। कोटडिया कहते हैं निश्चित तौर पर यह मुद्दा जोर-शर से उठाया गया कि जिस कंपनी को काम दिया गया था उस कंपनी के प्रबंधन पर तो कारवाई होनी ही चाहिए। स्थानीय सामाजिक संगठनों ने भी विरोध प्रदर्शन किया, बल्कि पुलिस प्रशासन लेकर जिम्मेदार अधिकारियों तक को ज्ञापन भी सौंपा। शुरुआती दौर में राजनीतिक सपोर्ट भी मिला, लेकिन मामला जब एक बड़े जातिगत समुदाय के साथ जुड़ने लगा तो धीरे-धीरे ज्यादातर राजनीतिक दलों ने यूटर्न लेना शुरू कर दिया। देवेंद्र कोटठिया कहते हैं कि पूरे गुजरात के चुनावी मुद्दे को आप उठाकर देखें, तो मोरबी में हुई 135 लोगों की जान जाने वाली घटना बहुत बड़े चुनावी मुद्दे के तौर से नदारद हो चुकी।

जातिगत समीकरणों के आधार पर न करें टारगेट

गुजरात के पाटीदार समुदाय से ताल्लुक रखने वाले हीरेन पटेल कहते हैं कि मोरबी में जो घटना हुई है उसके जिम्मेदारों को बिल्कुल बख्शा नहीं जाना चाहिए। पटेल की दलील है कि कानूनी तौर पर जो कदम उठाए जाने चाहिए थे, वह सरकार से लेकर जिम्मेदार अधिकारियों ने उठाए हैं। वह कहते हैं कि उनके समुदाय से जुड़े संगठनों ने इस बात पर जरूर आपत्ति उठाई कि ओरेवा कंपनी के मालिकों को महज जातिगत समीकरणों के आधार पर टारगेट न किया जाए। पत्रकार देवेंद्र कोटडिया कहते हैं कि मामला इसी जगह से यूटर्न लेने लगा। संदेश जातिगत समीकरणों के आधार पर सिर्फ मोरबी और सौराष्ट्र ही नहीं बल्कि गुजरात के अलग-अलग इलाकों में पहुंचने लगा था। वह कहते हैं कि गुजरात में चुनावों की दशोदिशा बदलने वाले पाटीदार समुदाय से चुनावी महीनों में सीधे तौर पर कोई भी राजनीतिक दल पंगा लेना नहीं चाहेगा। यही वजह है कि घटना के बाद उस पर कानूनी तौर पर कार्यवाही हो रही है। लोगों को गिरफ्तार किया गया है। लेकिन जो मुद्दा कंपनी के मालिक को गिरफ्तार कर या उनके खिलाफ बड़ी कार्रवाई करने का उठा था, वह धीरे-धीरे खत्म होने लगा। पत्रकार देवेंद्र कहते हैं कि संभव है चुनावों के बाद कोई कार्यवाही हो। लेकिन चुनाव से पहले पाटीदार समुदाय से ताल्लुक रखने वाले ओरेवा ग्रुप के ऊपर हाथ डालना राजनैतिक तौर पर मुनाफे का सौदा नहीं माना जा रहा है।

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