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मानस वृंदावन दिवस – ७: दहशत से कुछ नहीं होता, महेनत से कुछ कुछ होता है पर रहमत से सब कुछ होता है

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होली के पावन पर्व पर जब पुरा वृंदावन कृष्ण प्रेम में रंगोत्सव मना रहे हैं, तब पूज्य मोरारी बापू की तलगाजरडी व्यासपीठ ने आज “मानस वृंदावन” के सातवें दिन की कथा का गान आरंभ करते हुए, नीरजजी की पंक्ति सुनाते हुए कहा कि – “यह मस्तों की प्रेम सभा है, यहाँ सम्भल सम्भल कर आना है।
बापूने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि “वृंदावन के सभी युवा कथाकार परस्पर स्नेहादर रखते है। एक साथ- ऐसे स्वर-संपन्न और मधुर-भाषी वक्ता का प्रकट होना, विश्व के लिए अच्छा सगुन है।”
महाप्रभुजी के दो भाव वृंदावन में देखे जाते है। एक तो भगवत् भाव और दूसरा भक्त भाव। आप के जो भी आश्रित, जिस भाव से भजते है, उसी स्वरूप में गौरांग प्रभु उसको दर्शन देते हैं। आप का एक शिष्य मुरारी- भगवान के वराह अवतार की उपासना करता था। उसे महाप्रभुजी ने वराह के रुप में दर्शन दिए। और किसीको नरसिंह रुप में तो किसी को नारायण रुप में दर्शन दिए थे।। कृष्ण चैतन्य महाप्रभुजी जब भक्त भाव में होते थे, तब पुरी तरह भक्ति भाव में डूब जाते थे। और भगवत भाव में होते थे, तब आश्रित का भाव देखकर भाव समाधि में डूब जाते थे।
पैसा, पद, प्रतिष्ठा या विशेष पहचान- अगर हमारा भजन भंग कर सकें, तो ऐसा भजन व्यर्थ है।भक्ति में बाधा डाले, ऐसी सभी चीज त्याग देनी चाहिए।
जो जाना जाय, वह साधु नहीं! जो जाना जाय, उस की या तो प्रशंसा होती है, या निंदा! जैसे भगवान नहिं जाने जाते, वैसे भक्त भी नहीं जाने जाते।
भगवान राम नारदजी के पूछने पर साधु के लक्षण बताते है, पर आखिर में कह देते है-
“कही सक न शारद शेष नारद सुनत पद पंकज गहे।”प
एक उक्ति है कि – “साधु हंसे, तो भगवान फंसे।”
बापूने जोड़ दिया – “जो भगवान फंसे, तो माया खसे।”
बापू ने कहा कि – “अगर कोई साधु तुम्हारे सामने मुस्कुरा दे, तो समजना भगवान को भी आप के सामने देखना पडेगा! साधु की महिमा ही कुछ ओर है।”
द्रष्टि के प्रकार बताते हुए बापूने कहा कि एक है – धूम्रमयी द्रष्टि – जब धुंआ होता है, तो साधु को साफ रुप में नहीं देख पाओगे।। दुसरी प्रकाशिनी द्रष्टि – साधु हमारे सामने देखें, तब अंदर ज्योत जल जाती है।
तीसरी है – पावनी द्रष्टि, जो हमें पवित्र कर दें। चौथी है- व्यापिनी द्रष्टि, जिस में हमें सब में वही व्याप्त हुआ दिखाई देता है।
बापू ने कहा कि- “जो विशेषण मुक्त और विभूषण मुक्त हो, वही साधु को जान सकते है।”
गौरांग महाप्रभुजी ने अपने शिष्य मुरारी को, आपने चबाया हुआ पान दिया। जिसमें से मुरारी ने थोडा खाया और बाकी अपने बदन पर घीस दिया। …. और कहते है- वह पा गया!
बापू ने कहा कि सन्यासी प्रकाशानंद सरस्वती के ‘मायावाद’ के सामने मुरारी का ‘पायावाद’ परम को पा जाते है।
दहशत से कुछ नहीं होता, मेहनत से कुछ कुछ होता है। पर रहेमत से सब कुछ हो जाता है।
“हमारा सुख दुसरों पर अवलंबित है, इसलिए हमारा मन चंचल और अस्थिर रहता है। अगर मन को शांत करना चाहते हो, तो ‘अचाह’ हो जाओ!”
गुरु नानकदेव जिस सुख पाने की बात करते है, वह “नीजसुख” है। मानस में लिखा है- “नीज सुख बिनु मन होइ न धीरा।”
जहाँ हवा होती है, वहीं स्पर्श का अनुभव होता है। पवन नहीं होता तो स्पर्श का अनुभव नहीं होता। नीजता का सुख नहीं मिला, वह शांत नहीं हो सकता। और ऐसा सुख रहेमत से ही पा सकते है। रहमत नहीं होती, तो पाने के बाद भी पचा नहीं पाओगे।
हम भी कथा “स्वान्त:सुखाय” गाते है।
कथा के क्रम में प्रवेश करते हुए पूज्य बापूने कहा कि- “राम जन्म के बाद चारों ओर उजाला ही उजाला है। अंधेरा रहता ही नहीं। कुछ बातें जानी नहीं जाती, कुछ कुछ बातें श्रद्धा और विश्वास से मानी जाती है।”
‘यह मेरा पंथ, वह तेरा पंथ’ कहकर हम सनातन धर्म के पैर ही तोड़ते रहे है।
अयोध्या में चारों भाईयों का नामकरण संस्कार हुआ। बापूने कहा कि राम परमात्मा है। राम का नाम लेने वाला – सब को भर दें, सबका पोषण करे, किसी का शोषण न करे। रामनाम जपने वाले के दिल में किसी से शत्रुता नहीं होनी चाहिए, और रामनाम जपने वालों को दूसरों के आधार बनना चाहिये।
होशियारी छोड़ के, द्वेष छोड़ के, औरों की मदद कर के रामनाम का जाप हो, तभी नामस्मरण सार्थक है।
आज बापूने अढिया का आख्यान कर के सब को आनंद विभोर बनाया।
मनोज जोशी
महुवा – भावनगर

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