रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव ने मुफ्त उपहार को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को सलाह दी है। उनका कहना है कि सरकार को मुफ्त उपहार देने के मुद्दे पर राजनीतिक दलों के बीच सहमति बनाने के लिए ‘श्वेत पत्र’ लाना चाहिए। साथ ही इस बारे में गहन बहस होनी चाहिए कि इस संबंध में राजनीतिक दलों पर कैसे अंकुश लगाया जाए। सुब्बाराव ने यह भी सलाह दी कि आम जनता को इन मुफ्त उपहारों की लागत और लाभों के बारे में अधिक जागरूक किया जाना चाहिए और यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इस बारे में लोगों को कैसे शिक्षित करे। उन्होंने कहा, ‘मुझे लगता है कि यह एक राजनीतिक मुद्दा है और इस पर राजनीतिक सहमति होनी चाहिए। इसका नेतृत्व केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री को करना होता है। मेरा मानना है कि उन्हें एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिए और इस पर आम सहमति बनाने का प्रयास करना चाहिए।’ आरबीआई के पूर्व गवर्नर का कहना है कि लोगों को मुफ्त उपहारों के बारे में जागरूक करना चाहिए। उन्होंने कहा कि सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि हम इस पर कैसे रोक लगा सकते हैं और हम इसे कैसे लागू कर सकते हैं। उन्होंने आगे कहा कि भारत जैसे गरीब देश में यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह सबसे कमजोर वर्गों को कुछ सुरक्षा तंत्र प्रदान करे और यह भी आत्मनिरीक्षण करे कि वित्तीय बाधाओं को देखते हुए उन्हें कितना दूर तक ले जाया जा सकता है। उन्होंने सलाह देते हुए कहा, ‘आपको पूछना चाहिए कि क्या यह इस धन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग है या हम कुछ बेहतर कर सकते हैं। इसलिए मुझे लगता है कि हमें मुफ्त उपहारों पर अधिक जागरूक होना चाहिए। साथ ही जोरदार बहस करनी चाहिए और यह पता लगाना चाहिए कि हम राजनीतिक दलों पर कुछ संयम कैसे लगा सकते हैं।’
वित्तीय अनुशासन बनाए रखना जरूरी
एफआरबीएम की सीमा का उल्लंघन करने वाले कुछ राज्यों के बारे में उन्होंने कहा कि राज्यों और केंद्र सरकार को वित्तीय अनुशासन बनाए रखना चाहिए और एफआरबीएम लक्ष्यों का पालन किया जाना चाहिए। एक सवाल पर सुब्बाराव ने कहा कि आईएमएफ के एक अध्ययन के अनुसार भारत को एक विकसित राष्ट्र बनने के लिए 2047 तक लगातार 7.6 प्रतिशत की दर से वृद्धि करने की जरूरत है। उन्होंने कहा, ‘अगले 25 साल तक हर साल 7.6 प्रतिशत की वृद्धि दर को बनाए रखना, कुछ देशों ने ऐसा किया है, चीन ने यह किया है। लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि जलवायु परिवर्तन, भू-राजनीतिक, वैश्वीकरण जैसी चुनौतियों के कारण क्या हम यह कर सकते हैं। यह कहना मुश्किल है।’