2004 में विपक्षी खेमे को मजबूत नेतृत्व प्रदान कर चुकीं सोनिया गांधी का करिश्मा एक बार फिर विभिन्न राजनीतिक दलों को एक साथ एक मंच पर लाने में कामयाब होता दिखाई पड़ रहा है। अब तक बेंगलुरु बैठक में आने के लिए 24 दलों ने अपनी सहमति दे दी है। ममता बनर्जी के बेंगलुरु बैठक में शामिल होने को लेकर संदेह व्यक्त किया जा रहा था, लेकिन समाचार है कि अब वे भी भतीजे अभिषेक बनर्जी के साथ बैठक में हिस्सा लेने बेंगलुरु पहुंच रही हैं। इधर अपना दल (कृष्णा पटेल गुट) ने भी बैठक में शामिल होने पर हां कर दिया है। ऐसे में यदि विपक्ष सभी सीटों पर साझा उम्मीदवार खड़ा करने पर एकमत बनाने में सफल हुआ तो इसे कांग्रेस और सोनिया गांधी की बड़ी सफलता मानी जाएगी। सोनिया गांधी की कोशिशों का परिणाम माना जा रहा है कि पटना बैठक के बाद अचानक कांग्रेस विपक्षी दलों की एकता में लीड रोल में दिखाई दे रही है। यही कारण है कि कांग्रेस ने इस बैठक को न केवल अपने शासित राज्य में कराने का निर्णय किया, बल्कि उसके केंद्र में सोनिया गांधी को लाकर खड़ा कर दिया। कांग्रेस को यह मजबूती हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों से मिली है। जिस तरह देश के मुस्लिम मतदाताओं ने विभिन्न चुनावों में एक सुर में कांग्रेस को समर्थन देने का संकेत दिया है, माना जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस मजबूत स्थिति में होगी। इस आधार पर कांग्रेस दक्षिणी राज्यों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में भी मजबूत होगी। यही कारण है कि मुस्लिम मतों के दूसरे दावेदारों को कहीं न कहीं कांग्रेस के साथ आने में ही अपनी भलाई समझी है। विपक्षी एकता को स्थापित करने में यह समीकरण कारगर होता दिखाई पड़ रहा है। इन परिस्थितियों के बीच कांग्रेस विपक्षी एकता की धुरी बनकर उभर सकती है जो न केवल कांग्रेस को मजबूत करेगी, बल्कि इससे 2024 की लड़ाई रोचक हो सकती है। हालांकि, विपक्ष के कुछ प्रमुख दलों के विपक्षी बैठक में शामिल होने पर अभी भी संशय बरकरार है। बसपा नेता मायावती ने लोकसभा चुनाव में अकेले दम पर जाने की घोषणा कर दी है, लेकिन बसपा को साथ लिए बिना उत्तर प्रदेश जैसे महत्त्वपूर्ण राज्य में विपक्षी एकता असरदार नहीं हो सकती। यही कारण है कि बसपा को विपक्षी खेमे में लाने के लिए कांग्रेस पिछले दरवाजे से अभी भी कोशिश कर रही है। लेकिन जब तक दोनों दलों में समझौते की बात सामने नहीं आ जाती, इसको लेकर बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता। इसी तरह राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी ने पारिवारिक कार्यक्रमों का हवाला देकर विपक्षी दलों की पटना बैठक में आने से इनकार कर दिया था। लेकिन बेंगलुरु बैठक को लेकर भी अभी तक आरएलडी ने अपनी स्थिति साफ नहीं की है। ऐसे में उसे लेकर भी संशय बरकरार है।
आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब दो राज्यों में सत्ता में है। दिल्ली की सात और पंजाब की 13 लोकसभा सीटों पर उसकी दावेदारी मजबूत है। अरविंद केजरीवाल ने साफ कर दिया है कि यदि कांग्रेस दिल्ली अध्यादेश पर आप का समर्थन करने को तैयार हो जाती है तो वह विपक्षी एकता की बैठक में शामिल होगी। हालांकि कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इस बात के संकेत दिए हैं कि वह इस अध्यादेश को लेकर आप को समर्थन दे सकती है।
सफल नहीं होगी सोनिया की कोशिश: भाजपा
इधर, भाजपा एनडीए का कुनबा बढ़ाने में लगी है और अपने साथ तमाम दलों को जोड़ने की कोशिश में है। ऐसे में भाजपा की नज़र विपक्षी एकता की इस कोशिश पर बहुत बारीकी से है। वह यह दावा कर रही है कि सोनिया गांधी को लाने के बावजूद विपक्षी एकता की कोशिश कामयाब नहीं होगी। भाजपा प्रवक्ता प्रेम शुक्ल ने अमर उजाला से कहा कि कांग्रेस आज की परिस्थिति की 2004 से तुलना कर रही है। उसे समझना चाहिए कि न तो भाजपा आज 2004 वाली स्थिति में है, और न कांग्रेस। 2004 में भाजपा को अपने सहयोगी दलों का सहारा लेना पड़ रहा था, जबकि आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा अकेले दम पर दो बार सत्ता में आ चुकी है। वह अब दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है और उसका लगातार विस्तार हो रहा है। उनका कहना है कि कांग्रेस 2004 में मजबूत स्थिति में थी, लेकिन 2014 और 2019 में वह नेता विपक्ष की हैसियत पाने के लिए आवश्यक सीटें भी हासिल करने में नाकाम रही है। देश के सबसे बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश में वह एक लोकसभा सीट, दो विधानसभा सीट तक पहुंच चुकी है तो बिहार में वह दूसरे दलों के सहारे है। सीटों के मामले में यूपी के बाद सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में वह लगभग समाप्त हो गई है तो महाराष्ट्र में भी सहयोगी दलों के सहारे खड़ी है।
सोनिया गांधी के करिश्मे का विपक्षी एकता में दिखने लगा असर, बैठक में 24 दलों के आने की संभावना
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